Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


120 . कीमियागर गौड़पाद : वैशाली की नगरवधू

विश्वविश्रुत कीमियागर गौड़पाद अपनी प्रयोगशाला में बैठे देश -विदेश के आए वटुकों को रसायन के गूढ़ रहस्य बता रहे थे। विविध भ्राष्टियों और कूप्यकों पर अनेक रसायन सिद्ध किए जा रहे थे। वटुकों में चीन , तातार , गान्धार , तिब्बत , तपिशा , शकद्वीप , पारसीक , यवन , ताम्रपर्णी,सिंहल , आदि सभी देशों के वटुक थे।

कपिशा के वटुक धन्वन् ने कहा - “ भगवन् इस विस्तृत संसार के सब सजीव और निर्जीव पदार्थकिस प्रकार बने हैं ? ”.

आचार्य ने कहा - सौम्य धन्वन् वे सब मूल तत्त्वों के परस्पर संयोग से बने हैं । इनके तीन वर्ग हैं ; कुछ पदार्थ तत्त्व रूप ही में विद्यमान हैं , इनमें एक ही जाति के परमाणु मिलते हैं ; इन्हें मूलतत्त्व कहते हैं । कुछ दो या अधिक तत्त्वों के रासायनिक संयोग से बने हैं , ये यौगिक कहाते हैं । कुछ अधिक तत्त्वों और यौगिकों के भौतिक मिश्रणों से बने हैं , ये भौतिक मिश्रण कहाते हैं । ”

“ और भगवन् , अणु - परमाणु क्या हैं ? ”लम्बी चोटी वाले पीतमुख चीनी वट्क ने कहा।

“ पदार्थ के कल्पनागम्य सूक्ष्मतम उस विभाग को , जिसमें उस पदार्थ के सब गुण धर्म उपस्थित हों , किन्तु उसके फिर विभाजन से मूल पदार्थ के वे गुण - धर्म नष्ट होकर उसके अवयवों के परमाणु में मिल जाएं , वह अणु कहाता है । ‘ परमाणु का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । वे सदा संयुक्त अवस्था में ‘ अणु के रूप ही में रहते हैं । प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व अणु की अवस्था ही में रहता है, परमाणु की अवस्था में नहीं। ये अणु, परमाणु भारयुक्त हैं और भिन्न -भिन्न परमाणुओं और तत्वों में बन्धनक्षमता है, जो परिस्थिति के अनुरूप बदलती रहती है । एक तत्त्व का दूसरे तत्त्व से उसकी ‘ परमाणु - बन्धन - क्षमता की समानता होने पर ही स्थिर संयोग बन सकता है। ”

“ तो भगवन् ? इस प्रकार भूमण्डल के समस्त पदार्थ, जो परमाणुओं के संयोग से बने हैं , क्या हमें सुलभ हैं ? वे हमारे लिए सतत व्यवहार्य हैं ” – एक सिंहल छात्र ने श्रद्धांजलि -बद्ध होकर पूछा ।

“ नहीं भद्र, इनमें से कुछ हमें सुलभ हैं और कुछ विरल। ”

“ तो भगवन् , क्या परमाणु नित्य अविभाज्य है ? ”– एक युवक वटुक ने पूछा ।

“ नहीं -नहीं भद्र, कुछ परमाणु स्वयं ही टूटकर दूसरी जाति के परमाणु बन जाते हैं तथा उन्हें रासायनिक रीति से तोड़ा जा सकता है, नाग - परमाणु तोड़कर हम उसे पारदीय रूप दे सकते और पारद से सुवर्ण बना सकते हैं , आवश्यकता यही है कि लघु परमाणु- भार को अपेक्षित गुरु परमाणु - भार में स्थापित किया जाए! ”

“ किन्तु भगवन्, परमाणु कैसे खण्डित किया जा सकता है ? कैसे लघु - भार परमाणु को गुरु- भार परमाणु के रूप में व्यवस्थित किया जा सकता है ? ”गान्धार छात्र कपिश ने पूछा।

“ रश्मिक्षेपण द्वारा। पदार्थों और अणु - परमाणुओं के संगठन -विघटन का प्रकृति साधन परमाणु में विद्युत - सत्त्व है, तथा उस संगठन को स्थायित्व प्राप्त होता है रश्मिपुञ्ज से । जब परमाणु का विस्फोट किया जाएगा , तो विद्युतसत्त्व और रश्मिपुंज - क्षेपण करना होगा। उसके बाद जब फिर से परमाणु संगठन करना होगा तो विद्युत - आवेश और रश्मिपुञ्ज का विकास होगा। ”

“ यह किस प्रकार भगवन् ? ”

“ इस प्रकार कि प्रत्येक तत्त्व का प्रत्येक परमाणु एक छोटी - सी सूर्यमाला है। तुम जानते हो भद्र कि पृथ्वी आदि सम्पूर्ण ग्रह अपने विशिष्ट वृत्तों में सूर्य की परिक्रमा करते हैं । सूर्य - रूप भी स्थिर नहीं है । इसी प्रकार समस्त विद्युतसत्त्व रश्मिपुञ्ज की परिक्रमा करते रहते हैं । इससे रश्मिपुञ्ज और विद्युत -तत्त्व परमाणुओं का अत्यल्प स्थान व्याप्त कर पाते हैं । उस व्याप्त स्थान की अपेक्षा परमाणु का बहुत - सा अन्तराकाश ठोस से ठोस परमाणु में शून्य रहता है। इसी से तो हम कहते हैं - “ अणोरणीयान् महतो महीयान् । ”

“ भगवान्, हम क्या शून्य को ही आकाश समझें ? शून्य तो नहीं है पर तत्त्व नहीं नहीं है; आकाश यदि तत्त्व है तो वह नहीं नहीं। है है। फिर भगवन् , वही आकाश परमाणु में भी व्याप्त व्याख्यात हुआ है । सो यदि वह शून्य है तो वह आकाश - तत्त्व नहीं है । ”– एक मागध छात्र ने शंका की ।

“ नहीं भद्र , आकाश शून्य का नाम नहीं है । आकाश तत्त्व एक अतिसूक्ष्म तरल पदार्थ है । यह तरल पदार्थ भूमण्डल के बाहर भी व्याप्त है, भीतर भी है। ग्रहों, नक्षत्रों और उनके मध्यवर्ती आकाश से लेकर ठोस - से -ठोस पदार्थों के अणओं में , यहां तक कि परमाण में भी वह व्याप्त है । यह सब सचराचर विश्व उसी द्रव - सत्त्व के अथाह समुद्र में रह रहा है । उसी से विद्युत - सत्त्व में शक्ति , प्रकाश में आलोक -प्रवाह और भूतत्त्व में स्थिर आकर्षण स्थापित है । ”

“ तो भगवन्, जड़ पदार्थ और शक्ति में सामञ्जस्य किस प्रकार है ? ”-तिब्बत के एक छात्र ने पूछा ।

“ पदार्थों के पुत्र, दो ही तो स्वरूप हैं या तो जड़- स्वरूप या शक्ति -स्वरूप । जड़ पदार्थ वे हैं , जिनमें भार और विस्तार , ये दो गुण समवाय सम्बन्ध में रहते हैं । शक्ति में कार्यक्षमता है, पर वह जड़ पदार्थ के आश्रय से रहती है । प्रत्येक पदार्थ की तीन अवस्थाएं हो सकती हैं : घन , द्रव और वाष्प । ये तीनों अवस्था ताप - शक्ति के कारण हैं । घन का प्रधान गुण काठिन्य है, द्रव का गुण समतल होना और वाष्प का जितना स्थान उसे मिले , सबमें व्याप्त हो जाना । ये जड़ पदार्थ अविनाशी हैं । उनके केवल रूपों का परिवर्तन होता है। ”

“ शक्ति -स्वरूप पदार्थ क्या है भगवन् ? ”ताम्रपर्णी के एक छात्र ने कहा।

“ बल , ताप, प्रकाश और विद्युत - सत्त्व ये चार प्रमुख शक्ति - पदार्थ हैं । पदार्थ के अणुओं की गतिज शक्ति को ताप कहते हैं । प्रकाश सीधी रेखा में गमन करता है, उस रेखा को रश्मि कहते हैं । विद्युत - सत्त्व और बल नियामक पदार्थ हैं । ”

“ तो भगवन् ! जब हम विद्युतसत्त्व और रश्मिपुञ्ज - क्षेपण से नाग ‘परमाणु तोड़कर पारद और पारद से सुवर्ण बना सकते हैं , तो फिर पारद ही से सुवर्ण क्यों न बना लिया जाए ? पारद तो सुलभ है। ”

“ है, किन्तु सौम्य, जब नाग- परमाणु विघटित होगा तो हमें पारद- परमाणु उसमें विघटित प्राप्त होगा , पारद में वह संगठित है । अत : उसे विघटित करने में हमें बड़ी बाधा यह है कि वह विघटित होते - होते और ताम्र में लय होते - होते , रश्मिपुञ्ज - क्षेपण - प्रक्रिया के कारण उड़ जाता है । उसे अग्नि -स्थिर करने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है, इसी से नाग परमाणु विघटित करके और उसे पारद - परमाणु का रूप देकर ताम्रविलय करना अधिक उपादेय है । फिर वह नाग पारद -विघटित परमाणु विद्युत - सत्त्व एवं रश्मिपुञ्ज प्रतिवाहति हो शक्ति बल और अवस्थान के अनुक्रम से शत - सहस्र- लक्ष कोटि वेधी हो जाता है। ”

“ किन्तु यदि पारद ही को अग्नि -स्थिर किया जाए ? ”

“ तो पहले उसे क्षार, अम्ल , लवण, मूत्र , पित्त , वैसा , विषवर्ग में स्नान कराना होगा , उसे केंचुली - रहित और बुभुक्षित करना होगा । बुभुक्षित होने पर उसे स्वर्णजीर्ण कराकर उसका बीजकरण करना होगा। तब वह भी शत - सहस्र - लक्ष- कोटि वेधी होगा । उसके लिए उसे खोटबद्ध करना होगा! फिर वह ताम्र -तार - वंग को वेध करेगा । ”

“ लोह - वेध क्या रसायन की इति है भगवन् ? ”

“ नहीं पुत्र , वह तो परीक्षण-माप है। रस सिद्ध होने पर जब देखो कि उसने लोहवेध कर लिया तब उसे भक्षण करो, देहवेध सिद्ध हो गया । ”

“ देहसिद्ध पुरुष के क्या लक्षण हैं भगवन् ? ”

“ पुत्र , देहसिद्ध पुरुष अत्यक्त - शरीर होते हैं , यह शरीर ही भोगों का आश्रयस्थल है , परन्तु वह स्थिर नहीं है। यह देहलोहसिद्ध रसायन ही उसे स्थैर्य देता है, काष्ठौषधनाग में , नाग वंग में , वंग ताम्र में , ताम्र तार में , तार स्वर्ण में और स्वर्ण पारद में लय होता है , सो यह सिद्ध धातुवेधी - शरीर- वेधी पारद शरीर को अजर - अमर करता है,स्थिर- देह पुरुष अभ्यासवश अष्टसिद्धियों का अनुष्ठाता, परम ज्योति -स्वरूप , अमल, गलितानल्प -विकल्प , सर्वार्थविवर्जित होता है । उसकी भृकुटि के मध्य में प्रकाश - तत्त्व और विद्युत्सत्त्व अधिष्ठित हो जाता है। उसी में दृष्टि को केन्द्रित करके वह सचराचर सब जगत् को प्रत्यक्ष देख पाता है । वह सब क्लेशों से रहित , शान्त और स्वयं वंद्य और अमितायु हो जाता है । ”

“ किन्तु भगवन् , क्या वृद्धावस्था और मृत्यु जीवन का अवश्यम्भावी परिणाम नहीं ? क्या वह नियत समय पर शरीर को आक्रान्त नहीं करती ? क्या वह किसी प्रकार टाली जा सकती है ? ”तिब्बत के पीतकेशी एक वटुक ने प्रश्न किया ।

आचार्य ने कहा - “ सौम्य , वृद्धावस्था और मृत्यु एक रोग है, शरीर के अवश्यम्भावी परिणाम नहीं । वे युक्ति और रसायन द्वारा टाले जा सकते हैं । शरीर जिन अवयवों से बना है, उनमें अनेक धातु और खनिज पदार्थ हैं , जिनका शरीर के पोषण में निरन्तर व्यय होता रहता है। सौम्य , युक्ति से इन पदार्थों के मूल अवयव शरीर में जीर्ण करने से यही शरीर चिरकाल तक स्थिर अमितायु हो जाता है ।

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